श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय
adveṣṭā sarvabhūtānāṁ maitraḥ karuṇa eva ca |
nirmamo nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī || 12-13||
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||१२- १३||
mayyarpitamanobuddhiryo madbhaktaḥ sa me priyaḥ || 12-14||
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२- १४||
yasmānnodvijate loko lokānnodvijate ca yaḥ |
harṣāmarṣabhayodvegairmukto yaḥ sa ca me priyaḥ || 12-15||
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ||१२- १५||
anapekṣaḥ śucirdakṣa udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ || 12-16||
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२- १६||
yo na hṛṣyati na dveṣṭi na śocati na kāṅkṣati |
śubhāśubhaparityāgī bhaktimānyaḥ sa me priyaḥ || 12-17||
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ||१२- १७||
samaḥ śatrau ca mitre ca tathā mānāpamānayoḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu samaḥ saṅgavivarjitaḥ || 12-18||
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः |
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ||१२- १८||
tulyanindāstutirmaunī santuṣṭo yena kenacit |
aniketaḥ sthiramatirbhaktimānme priyo naraḥ || 12-19||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् |
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ||१२- १९||
बिन द्वेष सारे प्राणियों का मित्र करुणावान् हो।
सम दुःखसुख में मद न ममता क्षमाशील महान् हो॥ १२। १३॥
जो तुष्ट नित मन बुद्धि से मुझमें हुआ आसक्त है।
दृढ़ निश्चयी है संयमी प्यारा मुझे वह भक्त है॥ १२। १४॥
दृढ़ निश्चयी है संयमी प्यारा मुझे वह भक्त है॥ १२। १४॥
पाते न जिससे क्लेश जन उनसे न पाता आप ही।
भय क्रोध हर्ष विषाद बिन प्यारा मुझे है जन वही॥ १२। १५॥
भय क्रोध हर्ष विषाद बिन प्यारा मुझे है जन वही॥ १२। १५॥
जो शुचि उदासी दक्ष है जिसको न दुख बाधा रही।
इच्छा रहित आरम्भ त्यागी भक्त प्रिय मुझको वही॥ १२। १६॥
इच्छा रहित आरम्भ त्यागी भक्त प्रिय मुझको वही॥ १२। १६॥
करता न द्वेष न हर्ष जो बिन शोक है बिन कामना।
त्यागे शुभाशुभ फल वही है भक्त प्रिय मुझको घना॥ १२। १७॥
त्यागे शुभाशुभ फल वही है भक्त प्रिय मुझको घना॥ १२। १७॥
सम शत्रु मित्रों से सदा अपमान मान समान है।
शीतोष्ण सुख-दुख सम जिसे आसक्ति बिन मतिमान है॥ १२। १८॥
शीतोष्ण सुख-दुख सम जिसे आसक्ति बिन मतिमान है॥ १२। १८॥
निन्दा प्रशंसा सम जिसे मौनी सदा संतुष्ट ही।
अनिकेत निश्चल बुद्धिमय प्रिय भक्त है मुखको वही॥ १२। १९॥
अनिकेत निश्चल बुद्धिमय प्रिय भक्त है मुखको वही॥ १२। १९॥
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