Utthaana Path - उत्थान पथ



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उत्थान पथ

श्री राम चरितमानस तथा श्री मद्भगवद्गीता
में से चुने हुये इन दोहे, चौपाइयों और श्लोकों में
उच्चतम धर्म के व्यवहारिक दर्शन का सार है
जिस के पठन, मनन और
व्यवहारिक जीवन में घटित करने के प्रयास से
सर्वांगी (अध्यात्मिक तथा लौकिक) उत्थान निश्चित है ।


निवेदन
प्रातः और सायं दोनों समय पाठ करने से प्रत्येक सप्ताह में गीता एवं रामायण का एक पाठ हो जायेगा । केवल एक ही समय पाठ करने से दो सप्ताह में होगा । पाठ के समय सभी परिवार-जन का सम्मिलित होना अति उत्तम है । पाठ के साथ शब्दार्थ तथा मनन अत्यन्त लाभदायक है ।

प्रति दिन – प्रार्थना


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।
हरि ॐ

दैनिक प्रार्थना


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ॐ सर्व शक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नमः

प्रार्थना 

हे दया और करुणा के धाम, मेरे आराध्यदेव ! तुम सच्चिदानन्दघन हो, तुम सर्व-व्यापक, सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान हो । तुम्हें बार-बार नमस्कार है, बार-बार नमस्कार है ।


मेरा मन इतना शुद्ध करो कि मेरे द्वारा निरन्तर राम-नाम का जाप होता रहे, सदैव तुम्हारी कृपा के लिये प्रार्थी रहूँ, सदैव तुम्हारा ही आश्रय लिये रहूँ, चहुँ ओर तुम्हारा ही दर्शन किया करूँ और तुम्हारी कृपा में सदैव संतुष्ट रहूँ ।


मुझे ऐसी बुद्धि और शक्ति दो कि मेरा कर्तव्य पालन सत्यनिष्ठा, लगन, उत्साह और प्रसन्नचित्त से अथक होता रहे, मेरे मन में सदैव सद्-विचार ही आते रहें, मेरा जीवन सदाचारी हो, सबके प्रति मेरा सद्-व्यवहार हो और मुझसे कोई ओछा या हीन कार्य न होने पावे ।


मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारा अभयहस्त सदैव मेरे मस्तक पर रहे, तुम्हारी कृपा सब पर सदा सर्वदा बनी रहे, जगत के समस्त प्राणियों में सद्-भावना बढ़ती रहे और विश्व का कल्याण हो ।

ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः।

॥ ॐ ॥

सर्व शक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नमः॥

मेरे राम, मेरे नाथ!

आप् सर्वदयालु हो, सर्वसमर्थ हो, सर्वत्र हो, सर्वज्ञ हो। आपको कोटिश नमस्कार ।

आपने साधना के लिये मानव शरीर दिया है और प्रति क्षण दया करते रहते हैं। आपके अनन्त उपकारों का ऋण नहीं चुका सकता। पूजा से आपको रिझाने का प्रयास करना चाहता हूँ।

अपनी कृपा से मेरे विश्वास दृढ़ कीजिये कि 'राम मेरा सर्वस्व है'। 'मैं राम का हूँ'। 'सब मेरे राम का है'। 'सब मेरे राम के हैं'। 'सब राम के मंगलमय विधान से होता है और उसी में मेरा कल्याण निहित है'।

अपनी अखण्ड स्मृति दीजिये। राम नाम का जप करता रहूँ। रोम रोम में राम बसा है। हर स्थान पर हर समय राम को समीप देखूँ।

अपनी चरण शरण में अविचल श्रद्धा दीजिये। मेरे समस्त संकल्प राम इच्छा में विलीन हों। राम कृपा में अनन्य भरोसा रख कर सदैव सन्तुष्ट और निश्चिन्त रहूँ, शान्त रहूँ, मस्त रहूँ।

ऐसी बुद्धि और शक्ति दीजिये कि वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग करके, पूरा समय और पूरी योग्यता लगा कर अपना कर्तव्य लगन उत्साह् और प्रसन्न चित्त से करता रहूँ। मेरे द्वारा को ऐसा कर्म न होने पाये जिसमें मेरे विवेक का विरोध हो।

सत्य, निर्मलता, सरलता, प्रसन्नता, विनम्रता, मधुरता मेरा स्वभाव हो।

दुखी को देख कर सहज करुणित और सुखी को देख कर सहज प्रसन्न हो जाऊँ । मेरे जीवन में जो सुख का अंश है वह दूसरों के काम आये और जो दुख का अंश है वह मुझे त्याग सिखाये।

मेरी प्रार्थना है कि आपका अभय हस्त सदा मेरे मस्तक पर रहे। आपकी कृपा सदा सब पर बनी रहे। सब प्राणियों में सद्‌भावना बढ़ती रहे। विश्व का कल्याण हो।

ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः।

Ram Charit Manas - Daily Prayer


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प्रार्थना

दो.-    मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर ।
    अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु विषम भव भीर ।।

मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला । मंदरू मेरू कि लेहि मराला ।।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी । दीन बंधु उर अंतरजामी ।।
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें । सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ।।
सेवक सुत पति मातु भरोसें । रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ।।
असरन सरन बिरदु संभारी । मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुरू पितु माता । जाऊँ कहाँ तजि पद जलजाता ।।
बालक जान बुद्धि बल हीना । राखहु सरन नाथ जन दीना ।।
बार बार मागऊँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ।।

दो.-    श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
    त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ।।

BhagvadGita - Daily Prayer


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प्रार्थना 



स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ||११- ३६||

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ||११- ३७||

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्- त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||११- ३८||

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११- ३९||

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||११- १८||

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ||११- ४४||

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||२- ७||



पण्डित दीनानाथ भार्गव दिनेश कृत पद्यानुवाद - श्री हरि गीता से 

होता जगत् अनुरक्त हर्षित आपका कीर्तन किये ।
सब भागते राक्षस दिशाओं में तुम्हारा भय लिये ॥
नमता तुम्हें सब सिद्ध-संघ सुरेश ! बारम्बार है ॥
हे हृषीकेश! समस्त ये उनका उचित व्यवहार है ॥ ११ । ३६ ॥

तुम ब्रह्म के भी आदिकारण और उनसे श्रेष्ठ हो ।
फिर हे महात्मन! आपकी यों वन्दना कैसे न हो ॥
संसार के आधार हो, हे देवदेव! अनन्त हो ॥
तुम सत्, असत् इनसे परे अक्षर तुम्हीं भगवन्त हो ॥ ११ । ३७ ॥

भगवन्! पुरातन पुरुष हो तुम विश्व के आधार हो ।
हो आदिदेव तथैव उत्तम धाम अपरम्पार हो ॥
ज्ञाता तुम्हीं हो जानने के योग्य भी भगवन्त् हो ॥
संसार में व्यापे हुए हो देवदेव! अनन्त हो ॥ ११ । ३८ ॥

तुम वायु यम पावक वरुण एवं तुम्हीं राकेश हो ।
ब्रह्मा तथा उनके पिता भी आप ही अखिलेश हो ॥
हे देवदेव! प्रणाम देव! प्रणाम सहसों बार हो ॥
फिर फिर प्रणाम! प्रणाम! नाथ, प्रणाम! बारम्बार हो ॥ ११ । ३९ ॥

तुम जानने के योग्य अक्षरब्रह्म अपरम्पार हो ।
जगदीश! सारे विश्व मण्डल के तुम्हीं आधार हो ॥
अव्यय सनातन धर्म के रक्षक सदैव महान् हो ॥
मेरी समझ से तुम सनातन पुरुष हे भगवान् हो ॥ ११ । १८ ॥

इस हेतु वन्दन-योग्य ईश! शरीर चरणों में किये ।
मैं आपको करता प्रणाम प्रसन्न करने के लिये ॥
ज्यों तात सुत के, प्रिय प्रिया के, मित्र सहचर अर्थ हैं ॥
अपराध मेरा आप त्यों ही सहन हेतु समर्थ हैं ॥ ११ । ४४ ॥

कायरपने से हो गया सब नष्ट सत्य- स्वभाव है ।
मोहित हुई मति ने भुलाया धर्म का भी भाव है ॥
आया शरण हूँ आपकी मैं शिष्य शिक्षा दीजिये ॥
निश्चित कहो कल्याणकारी कर्म क्या मेरे लिये ॥ २ । ७ ॥



Ram Charit Manas - Monday

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परम धर्म 

(सोमवार)

दो. -  गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।
     बिनु हरि कृपा न होर्इ सो गावहिं बेद पुरान ।।

धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा । पर निंदा सम अघ न गरीसा ।।
पर हित सरिस धर्म नहिं भार्इ । पर पीड़ा सम नहिं अधमार्इ ।।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं । जिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।
साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना । धर्म कि दया सरिस हरिजाना ।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।

दो.- उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
    निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ।।

BhagvadGita - Monday

उन्नति का मार्ग

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ ६-५॥
uddharedātmanātmānaṁ nātmānamavasādayet |
ātmaiva hyātmano bandhurātmaiva ripurātmanaḥ || 6-5||

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌॥ ६-६॥
bandhurātmātmanastasya yenātmaivātmanā jitaḥ |
anātmanastu śatrutve vartetātmaiva śatruvat || 6-6||

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ २-४७॥
karmaṇyevādhikāraste mā phaleṣu kadācana |
mā karmaphalaheturbhūrmā te saṅgo’stvakarmaṇi || 2-47||

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्‌ध्यसिद्‌ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ २-४८॥
yogasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṁ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā samatvaṁ yoga ucyate || 2-48||

युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ ६-१७॥
yuktāhāravihārasya  yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya yogo bhavati duḥkhahā || 6-17||

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥ १७-८॥
āyuḥsattvabalārogyasukhaprītivivardhanāḥ |
rasyāḥ snigdhāḥ sthirā hṛdyā āhārāḥ sāttvikapriyāḥ || 17-8||

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥ १८-४३॥
śauryaṁ tejo dhṛtirdākṣyaṁ yuddhe cāpyapalāyanam |
dānamīśvarabhāvaśca kṣātraṁ karma svabhāvajam || 18-43|| 

उद्धार अपना आप कर  निज को न गिरने दे कभी।
वह आप ही है शत्रु अपना  आप ही है मित्र भी॥ ६। ५॥
uddhāra apanā āpa kara  nija ko na girane de kabhī |
vaha āpa hī hai śatru apanā  āpa hī hai mitra bhī || 6| 5||
 
जो जीत लेता आपको वह बन्धु अपना आप ही।
जाना न अपने को स्वयं रिपु सी करे रिपुता वही॥ ६। ६॥
jo jīta letā āpako vaha bandhu apanā āpa hī |
jānā na apane ko svayaṁ ripu sī kare riputā vahī || 6| 6||

अधिकार केवल कर्म करने का  नहीं फल में कभी।
होना न तू फल-हेतु भी  मत छोड़ देना कर्म भी॥ २। ४७॥
adhikāra kevala karma karane kā  nahīṁ phala meṁ kabhī |
honā na tū phala-hetu bhī  mata choṛa denā karma bhī || 2| 47||

आसक्ति सब तज सिद्धि और असिद्धि मान समान ही।
योगस्थ होकर कर्म कर  है योग समता-ज्ञान ही॥ २। ४८॥
āsakti saba taja siddhi aura asiddhi māna samāna hī |
yogastha hokara karma kara  hai yoga samatā-jñāna hī || 2| 48||

जब युक्त सोना जागना आहार और विहार हों।
हो दुःखहारी योग जब परिमित सभी व्यवहार हों॥ ६। १७॥
jaba yukta sonā jāganā āhāra aura vihāra hoṁ |
ho duḥkhahārī yoga jaba parimita sabhī vyavahāra hoṁ || 6| 17||

दें आयु सात्त्विक-बुद्धि बल सुख प्रीति एवं स्वास्थ्य भी॥
रसमय स्थिर हृद्य चिकने खाद्य सात्त्विक प्रिय सभी॥ १७। ८॥
deṁ āyu sāttvika-buddhi bala sukha prīti evaṁ svāsthya bhī ||
rasamaya sthira hṛdya cikane khādya sāttvika priya sabhī || 17| 8 ||

धृति शूरता तेजस्विता रण से न हटना धर्म है॥
चातुर्य स्वामीभाव देना दान क्षत्रिय कर्म है॥ १८। ४३॥
dhṛti śūratā tejasvitā raṇa se na haṭanā dharma hai ||
cāturya svāmībhāva denā dāna kṣatriya karma hai || 18| 43 ||

Ram Charit Manas - Tuesday

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सदाचार 

(मंगलवार)

दो.- सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ ।
         तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनन्दन दोउ ।।

काम कोह मद मान न मोहा । लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया । तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ।।
सब के प्रिय सब के हितकारी । दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ।।
कहहिं सत्य प्रिय वचन बिचारी । जागत सोवत सरन तुम्हारी ।।
तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं । राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ।।
जननी सम जानहिं परनारी । धनु पराव विष तें विष भारी ।।
जे हरषहिं पर संपति देखी । दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी ।।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रानपिआरे । तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।

दो.- स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्हके सब तुम्ह तात ।
         मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ।।

BhagvadGita - Tuesday



इन्द्रियों व मन का निग्रह

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ ३-६॥
karmendriyāṇi saṁyamya ya āste manasā smaran |
indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyate || 3-6||


यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ ३-७॥
yastvindriyāṇi manasā niyamyārabhate’rjuna |
karmendriyaiḥ karmayogamasaktaḥ sa viśiṣyate || 3-7||


तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ २-६१॥
tāni sarvāṇi saṁyamya yukta āsīta matparaḥ |
vaśe hi yasyendriyāṇi tasya prajñā pratiṣṭhitā || 2-61||


असंशयं हि महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ६-३५॥
asaṁśayaṁ hi mahābāho mano durnigrahaṁ calam |
abhyāsena tu kaunteya vairāgyeṇa ca gṛhyate || 6-35|| 


यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥ ६-२६॥
yato yato niścarati manaścañcalamasthiram |
tatastato niyamyaitadātmanyeva vaśaṁ nayet || 6-26|| 


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ६-३०॥
yo māṁ paśyati sarvatra sarvaṁ ca mayi paśyati |
tasyāhaṁ na praṇaśyāmi sa ca me na praṇaśyati || 6-30|| 


ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ ५-३॥
jñeyaḥ sa nityasaṁnyāsī yo na dveṣṭi na kāṅkṣati |
nirdvandvo hi mahābāho sukhaṁ bandhātpramucyate || 5-3|| 


कर्मेंद्रियों को रोक जो मन से विषय-चिन्तन करे।
वह मूढ़ पाखण्डी कहाता दम्भ निज मन में भरे॥ ३। ६॥
karmeṁdriyoṁ ko roka jo mana se viṣaya-cintana kare |
vaha mūṛha pākhaṇḍī kahātā dambha nija mana meṁ bhare || 3| 6||


जो रोक मन से इन्द्रियाँ आसक्ति बिन हो नित्य ही।
कर्मेन्द्रियों से कर्म करता श्रेष्ठ जन अर्जुन वही॥ ३। ७॥
jo roka mana se indriyāṁ āsakti bina ho nitya hī |
karmendriyoṁ se karma karatā śreṣṭha jana arjuna vahī || 3| 7||


उन इन्द्रियों को रोक बैठे योगयुत मत्पर हुआ ।
आधीन जिसके इन्द्रियाँ दृढ़प्रज्ञ वह नित नर हु आ ॥ २। ६१॥
una indriyoṁ ko roka baiṭhe yogayuta matpara huā |
ādhīna jisake indriyāṁ dṛṛhaprajña vaha nita nara huā || 2| 61||


चंचल असंशय मन महाबाहो कठिन साधन घना।
अभ्यास और विराग से पर पार्थ होती साधना॥ ६। ३५॥
caṁcala asaṁśaya mana mahābāho kaṭhina sādhana ghanā |
abhyāsa aura virāga se para pārtha hotī sādhanā || 6| 35||


यह मन चपल अस्थिर जहाँ से भाग कर जाये परे।
रोके वहीं से और फिर आधीन आत्मा के करे॥ ६। २६॥
yaha mana capala asthira jahā se bhāga kara jāye pare |
roke vahīṁ se aura phira ādhīna ātmā ke kare || 6| 26||


जो देखता मुझमें सभी को और मुझको सब कहीं।
मैं दूर उस नर से नहीं वह दूर मुझसे है नहीं॥ ६। ३०॥
jo dekhatā mujhameṁ sabhī ko aura mujhako saba kahīṁ |
maiṁ dūra usa nara se nahīṁ vaha dūra mujhase hai nahīṁ || 6| 30||


है नित्य संयासी न जिसमें द्वेष या इच्छा रही।
तज द्वन्द्व सुख से सर्व बन्धन-मुक्त होता है वही॥ ५। ३॥
hai nitya saṁyāsī na jisameṁ dveṣa yā icchā rahī |
taja dvandva sukha se sarva bandhana-mukta hotā hai vahī || 5| 3||

Ram Charit Manas - Wednesday

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संत-लक्षण 

(बुधवार)

दो.- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम
     ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ।।

अमितबोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।।
सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ।।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती ।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
श्रद्धा छमा मैयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
बिरति विबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ।।

दो.- निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज ।
         ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ।।

BhagvadGita - Wednesday

श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय 


adveṣṭā sarvabhūtānāṁ maitraḥ karuṇa eva ca |
nirmamo nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī || 12-13||
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||१२- १३||

santuṣṭaḥ satataṁ yogī yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayyarpitamanobuddhiryo madbhaktaḥ sa me priyaḥ || 12-14||
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२- १४||

yasmānnodvijate loko lokānnodvijate ca yaḥ |
harṣāmarṣabhayodvegairmukto yaḥ sa ca me priyaḥ || 12-15||
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ||१२- १५||

anapekṣaḥ śucirdakṣa udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ || 12-16||
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२- १६||

yo na hṛṣyati na dveṣṭi na śocati na kāṅkṣati |
śubhāśubhaparityāgī bhaktimānyaḥ sa me priyaḥ || 12-17||
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ||१२- १७||

samaḥ śatrau ca mitre ca tathā mānāpamānayoḥ |
śītoṣṇasukhaduḥkheṣu samaḥ saṅgavivarjitaḥ || 12-18||
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः |
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ||१२- १८||

tulyanindāstutirmaunī santuṣṭo yena kenacit |
aniketaḥ sthiramatirbhaktimānme priyo naraḥ || 12-19||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् |
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ||१२- १९||


बिन द्वेष सारे प्राणियों का मित्र करुणावान्‌ हो।
सम दुःखसुख में मद न ममता क्षमाशील महान्‌ हो॥ १२। १३॥
 
जो तुष्ट नित मन बुद्धि से मुझमें हुआ आसक्त है।
दृढ़ निश्चयी है संयमी प्यारा मुझे वह भक्त है॥ १२। १४॥

पाते न जिससे क्लेश जन उनसे न पाता आप ही।
भय क्रोध हर्ष विषाद बिन प्यारा मुझे है जन वही॥ १२। १५॥

जो शुचि उदासी दक्ष है जिसको न दुख बाधा रही।
इच्छा रहित आरम्भ त्यागी भक्त प्रिय मुझको वही॥ १२। १६॥

करता न द्वेष न हर्ष जो बिन शोक है बिन कामना।
त्यागे शुभाशुभ फल वही है भक्त प्रिय मुझको घना॥ १२। १७॥

सम शत्रु मित्रों से सदा अपमान मान समान है।
शीतोष्ण सुख-दुख सम जिसे आसक्ति बिन मतिमान है॥ १२। १८॥

निन्दा प्रशंसा सम जिसे मौनी सदा संतुष्ट ही।
अनिकेत निश्चल बुद्धिमय प्रिय भक्त है मुखको वही॥ १२। १९॥

Ram Charit Manas - Thursday

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सद्‍नीति 

(गुरुवार)

दो.- ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
         होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।

सरल सुभाव न मन कुटिलार्इ । जथा लाभ संतोष सदार्इ ।।
बैर न बिग्रह आस न त्रासा । सुखमय ताहि सदा ब आसा ।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं । परूष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अवगुनक्न्ह दुरावा ।।
देत लेत मन संक न धरर्इ । बल अनुमान सदा हित करर्इ ।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।।
आगें कह मृदु बचन बनार्इ । पाछें अनहित मन कुटिलार्इ ।।
जा कर चित अहि गति सम भार्इ । अस कुमित्र परिहरेहिं भलार्इ ।।

दो.- पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद ।
          ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ।।

BhagvadGita - Thursday

 

देवता और असुर
devatā aura asura


अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥ १६-१॥
abhayaṁ sattvasaṁśuddhirjñānayogavyavasthitiḥ |
dānaṁ damaśca yajñaśca svādhyāyastapa ārjavam || 16-1||


अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥ १६-२॥
ahiṁsā satyamakrodhastyāgaḥ śāntirapaiśunam |
dayā bhūteṣvaloluptvaṁ mārdavaṁ hrīracāpalam || 16-2||


तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ १६-३॥
tejaḥ kṣamā dhṛtiḥ śaucamadroho nātimānitā |
bhavanti sampadaṁ daivīmabhijātasya bhārata || 16-3||


दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌॥ १६-४॥
dambho darpo’bhimānaśca krodhaḥ pāruṣyameva ca |
ajñānaṁ cābhijātasya pārtha sampadamāsurīm || 16-4||


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥ १६-२१॥
trividhaṁ narakasyedaṁ dvāraṁ nāśanamātmanaḥ |
kāmaḥ krodhastathā lobhastasmādetattrayaṁ tyajet || 16-21||
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्‌ बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ २-६३॥
krodhādbhavati sammohaḥ sammohātsmṛtivibhramaḥ |
smṛtibhraṁśād buddhināśo buddhināśātpraṇaśyati || 2-63||


शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्‍शरीरविमोक्षणात्‌।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ ५-२३॥
śaknotīhaiva yaḥ soḍhuṁ prākśarīravimokṣaṇāt |
kāmakrodhodbhavaṁ vegaṁ sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ || 5-23||



 भय-हीनता दम सत्त्व की संशुद्धि दृढ़ता ज्ञान की॥
तन-मन सरलता यज्ञ तप स्वाध्याय सात्त्विक दान भी॥ १६। १॥
bhaya-hīnatā dama sattva kī saṁśuddhi dṛṛhatā jñāna kī ||
tana-mana saralatā yajña tapa svādhyāya sāttvika dāna bhī || 16| 1 ||


मृदुता अहिंसा सत्य करुणा शान्ति क्रोध-विहीनता॥
लज्जा अचंचलता अनिन्दा त्याग तृष्णाहीनता॥ १६। २॥
mṛdutā ahiṁsā satya karuṇā śānti krodha-vihīnatā ||
lajjā acaṁcalatā anindā tyāga tṛṣṇāhīnatā || 16| 2 ||


धृति तेज पावनता क्षमा अद्रोह मान-विहीनता॥
ये चिन्ह उनके पार्थ जिनको प्राप्त दैवी-सम्पदा॥ १६। ३॥
dhṛti teja pāvanatā kṣamā adroha māna-vihīnatā ||
ye cinha unake pārtha jinako prāpta daivī-sampadā || 16| 3 ||


मद मान मिथ्याचार क्रोध कठोरता अज्ञान भी॥
ये आसुरी सम्पत्ति में जन्मे हु पाते सभी॥ १६। ४॥
mada māna mithyācāra krodha kaṭhoratā ajñāna bhī ||
ye āsurī sampatti meṁ janme hue pāte sabhī || 16| 4 ||



ये काम लालच क्रोध तीनों ही नरक के द्वार हैं॥
इस हेतु तीनों आत्म-नाशक त्याज्य सर्व प्रकार हैं॥ १६। २१॥
ye kāma lālaca krodha tīnoṁ hī naraka ke dvāra haiṁ ||
isa hetu tīnoṁ ātma-nāśaka tyājya sarva prakāra haiṁ || 16| 21 ||



फिर क्रोध से है मोह सुधि को मोह करता भ्रष्ट है।
यह सुधि ग फिर बुद्धि विनशे बुद्धि-विनशे नष्ट है॥ २। ६३॥
phira krodha se hai moha sudhi ko moha karatā bhraṣṭa hai |
yaha sudhi gae phira buddhi vinaśe buddhi-vinaśe naṣṭa hai || 2| 63||


 जो काम-क्रोधावेग सहता है मरण पर्यन्त ही।
संसार में योगी वही नर सुख सदा पाता वही॥ ५। २३॥
jo kāma-krodhāvega sahatā hai maraṇa paryanta hī |
saṁsāra meṁ yogī vahī nara sukha sadā pātā vahī || 5| 23||

Ram Charit Manas - Friday

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विजय-रथ 

(शुक्रवार)

दो.- वचनकर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ।
     तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा विश्राम ।।

सुनहु सखा कह कृपानिधाना । जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ।।
र्इस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ।।
अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम विजय उपाय न दूजा ।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ।।

दो.- महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।
     जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ।।

BhagvadGita - Friday

 

सात्विक कर्म व कर्ता
sātvika karma va kartā

नियतं सङ्गरहितं अरागद्वेषतः कृतम्‌।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥ १८-२३॥
niyataṁ saṅgarahitaṁ arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma yattatsāttvikamucyate || 18-23||

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद् राजसमुदाहृतम्‌॥ १८-२४॥
yattu kāmepsunā karma sāhaṁkāreṇa vā punaḥ |
kriyate bahulāyāsaṁ tad rājasamudāhṛtam || 18-24||

अनुबन्धं क्षयं हिंसां अनपेक्ष्य च पौरुषम्‌।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ १८-२५॥
anubandhaṁ kṣayaṁ hiṁsāṁ anapekṣya ca pauruṣam |
mohādārabhyate karma yattattāmasamucyate || 18-25||


मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्‌ध्यसिद्‌ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥ १८-२६॥
muktasaṅgo’nahaṁvādī dhṛtyutsāhasamanvitaḥ |
siddhyasiddhyornirvikāraḥ kartā sāttvika ucyate || 18-26||

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥ १८-२७॥
rāgī karmaphalaprepsurlubdho hiṁsātmako’śuciḥ |
harṣaśokānvitaḥ kartā rājasaḥ parikīrtitaḥ || 18-27||

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥ १८-२८॥
ayuktaḥ prākṛtaḥ stabdhaḥ śaṭho naiṣkṛtiko’lasaḥ |
viṣādī dīrghasūtrī ca kartā tāmasa ucyate || 18-28||


प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥ १८-३०॥
pravṛttiṁ ca nivṛttiṁ ca kāryākārye bhayābhaye |
bandhaṁ mokṣaṁ ca yā vetti buddhiḥ sā pārtha sāttvikī || 18-30||


 
फल-आश-त्यागी नित्य नियमित कर्म जो भी कर रहा॥
बिन राग द्वेष असंग हो वह कर्म सात्त्विक है कहा॥ १८। २३॥
phala-āśa-tyāgī nitya niyamita karma jo bhī kara rahā ||
bina rāga dveṣa asaṁga ho vaha karma sāttvika hai kahā || 18| 23 ||

आशा लि फल की अहंकृत-बुद्धि से जो काम है॥
अति ही परिश्रम से किया राजस उसी का नाम है॥ १८। २४॥
āśā lie phala kī ahaṁkṛta-buddhi se jo kāma hai ||
ati hī pariśrama se kiyā rājasa usī kā nāma hai || 18| 24 ||

परिणाम पौरुष हानि हिंसा का न जिसमें ध्यान है॥
वह तामसी है कर्म जिसके मूल में अज्ञान है॥ १८। २५॥
pariṇāma pauruṣa hāni hiṁsā kā na jisameṁ dhyāna hai ||
vaha tāmasī hai karma jisake mūla meṁ ajñāna hai || 18| 25 ||




बिन अहंकार असंग धीरजवान् उत्साही महा॥
अविकार सिद्धि असिद्धि में सात्त्विक वही कर्ता कहा॥ १८। २६॥
bina ahaṁkāra asaṁga dhīrajavān utsāhī mahā ||
avikāra siddhi asiddhi meṁ sāttvika vahī kartā kahā || 18| 26 ||

हिंसक विषय-भय लोभ-हर्ष-विषाद-युक्त मलीन है॥
फल कामना में लीन कर्ता राजसी वह दीन है॥ १८। २७॥
hiṁsaka viṣaya-bhaya lobha-harṣa-viṣāda-yukta malīna hai ||
phala kāmanā meṁ līna kartā rājasī vaha dīna hai || 18| 27 ||

चंचल घमण्डी शठ विषादी दीर्घसूत्री आलसी॥
शिक्षा-रहित पर-हानि-कर कर्ता कहा है तामसी॥ १८। २८॥
caṁcala ghamaṇḍī śaṭha viṣādī dīrghasūtrī ālasī ||
śikṣā-rahita para-hāni-kara kartā kahā hai tāmasī || 18| 28 ||



जाने प्रवृत्ति निवृत्ति बन्धन मोक्ष कार्य अकार्य भी॥
हे पार्थ सात्त्विक बुद्धि है जो भय अभय जाने सभी॥ १८। ३०॥
jāne pravṛtti nivṛtti bandhana mokṣa kārya akārya bhī ||
he pārtha sāttvika buddhi hai jo bhaya abhaya jāne sabhī || 18| 30 ||

Ram Charit Manas - Saturday

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श्रीराम-नाम 

(शनिवार)

दो.- जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
         बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ।।

ब्रह्म अनामय अज भगवंता । व्यापक अजित अनादि अनंता ।।
हरि बयापक सर्वत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ।।
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका । श्रुति कह अधिक एक तें एका ।।
राम सकल नामन्ह ते अधिका । होउ नाथ अघ खग गन बधिका ।।
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ।।
करतल होहिं पदारथ चारी । तेर्इ सिय रामु कहेउ कामारी ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटी नर ग्यानी ।।
जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।।

दो.- राम नाम मनिदीप धरू जीह देहरी द्वार ।
     तुलसी भीतर बाहेरहुँ जो चाहसि उजिआर ।।

Ram Charit Manas - Sunday

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प्रथम कर्त्तव्य 

(रविवार)

दो. -  जड़ चेतन गुन दोषमय विस्व कीन्ह करतार ।
    संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार ।।

प्रातः पुनीत काल प्रभु जागे । अरूनचूड़ बर बोलन लागे ।।
प्रातःकाल उठिकै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।
मातु पिता गुरु प्रभु कै बानी । बिनहिं विचार करिअ सुभ जानी ।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी । जो पितु मातु वचन अनुरागी ।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा । दुर्लभ जननि सकल संसारा ।।
करर्इ जो करम पाव फल सोर्इ । निगम नीति असि कह सबु कोर्इ ।।
कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ।।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदय राखि कौसलपुर राजा ।।

दो.- सो अनन्य जाकें असि मति न टरर्इ हनुमंत ।
        मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।।

BhagvadGita - Saturday


वास्तविक तप और सुख
vāstavika tapa aura sukha

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचं आर्जवम्‌।
ब्रह्मचर्यं अहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥ १७-१४॥
devadvijaguruprājñapūjanaṁ śaucaṁ ārjavam |
brahmacaryaṁ ahiṁsā ca śārīraṁ tapa ucyate || 17-14||

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥ १७-१५॥
anudvegakaraṁ vākyaṁ satyaṁ priyahitaṁ ca yat |
svādhyāyābhyasanaṁ caiva vāṅmayaṁ tapa ucyate || 17-15||

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनं आत्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥ १७-१६॥
manaḥ prasādaḥ saumyatvaṁ maunaṁ ātmavinigrahaḥ |
bhāvasaṁśuddhirityetattapo mānasamucyate || 17-16||


यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥ १८-३७॥
yattadagre viShamiva pariNAme.amR^itopamam.h .
tatsukhaM sAttvikaM proktamAtmabuddhiprasAdajam.h .. 18-37..

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌॥ १८-३८॥
viṣayendriyasaṁyogādyattadagre’mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva tatsukhaṁ rājasaṁ smṛtam || 18-38||

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥ १८-३९॥
yadagre cānubandhe ca sukhaṁ mohanamātmanaḥ |
nidrālasyapramādotthaṁ tattāmasamudāhṛtam || 18-39||

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥ १८-७०॥
adhyeShyate cha ya imaM dharmya.n sa.nvAdamAvayoH .
GYAnayaGYena tenAhamiShTaH syAmiti me matiH .. 18-70..


सुर द्विज तथा गुरु प्राज्ञ पूजन ब्रह्मचर्य सदैव ही॥
शुचिता अहिंसा नम्रता तन की तपस्या है यही॥ १७। १४॥
sura dvija tathā guru prājña pūjana brahmacarya sadaiva hī ||
śucitā ahiṁsā namratā tana kī tapasyā hai yahī || 17| 14 ||

सच्चे वचन हितकर मधुर उद्वेग-विरहित नित्य ही॥
स्वाध्याय का अभ्यास भी वाणी-तपस्या है यही॥ १७। १५॥
sacce vacana hitakara madhura udvega-virahita nitya hī ||
svādhyāya kā abhyāsa bhī vāṇī-tapasyā hai yahī || 17| 15 ||

सौम्यत्व मौन प्रसाद मन का शुद्ध भाव सदैव ही॥
करना मनोनिग्रह सदा मन की तपस्या है यही॥ १७। १६॥
saumyatva mauna prasāda mana kā śuddha bhāva sadaiva hī ||
karanā manonigraha sadā mana kī tapasyā hai yahī || 17| 16 ||

 
आरम्भ में विषवत् सुधा सम किन्तु मधु परिणाम है॥
जो आत्मबुद्धि-प्रसाद-सुख सात्त्विक उसी का नाम है॥ १८। ३७॥
ārambha meṁ viṣavat sudhā sama kintu madhu pariṇāma hai ||
jo ātmabuddhi-prasāda-sukha sāttvika usī kā nāma hai || 18| 37 ||

राजस वही सुख है कि जो इन्द्रिय-विषय-संयोग से॥
पहिले सुधा सम अन्त में विष-तुल्य हो फल-भोग से॥ १८। ३८॥
rājasa vahī sukha hai ki jo indriya-viṣaya-saṁyoga se ||
pahile sudhā sama anta meṁ viṣa-tulya ho phala-bhoga se || 18| 38 ||

आरम्भ एवं अन्त में जो मोह जन को दे रहा॥
आलस्य नीन्द प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा॥ १८। ३९॥
ārambha evaṁ anta meṁ jo moha jana ko de rahā ||
ālasya nīnda pramāda se utpanna sukha tāmasa kahā || 18| 39 ||


मेरी तुम्हारी धर्म-चर्चा जो पढ़े गा ध्यान से॥
मैं मानता पूजा मुझे है ज्ञानयज्ञ विधान से ॥ १८। ७०॥
merī tumhārī dharma-carcā jo paṛhe gā dhyāna se ||
maiṁ mānatā pūjā mujhe hai jñānayajña vidhāna se || 18| 70 ||


BhagvadGita - Sunday

 

अभयदान


īśvaraḥ sarvabhūtānāṁ hṛddeśe’rjuna tiṣṭhati |
bhrāmayansarvabhūtāni yantrārūḍhāni māyayā || 18-61||
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥ १८-६१॥
There lives a Master in the hearts of men
Maketh their deeds, by subtle pulling-strings,
Dance to what tune HE will.
18.61
ईश्वर हृदय में प्राणियों के बस रहा है नित्य ही .
सब जीव यंत्रारूढ़, माया से घुमाता है वही .. १८. ६१ ..

tameva śaraṇaṁ gaccha sarvabhāvena bhārata |
tatprasādātparāṁ śāntiṁ sthānaṁ prāpsyasi śāśvatam || 18-62||
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥ १८-६२॥
With all thy soul
Trust Him, and take Him for thy succour, Prince!
So- only so, Arjuna!- shalt thou gain-
By grace of Him- the uttermost repose,
The Eternal Place!
18.62
इस हेतु ले उसकी शरण, सब भाँति से सब ओर से .
शुभ शान्ति लेगा नित्य-पद, उसकी कृपा की कोर से .. १८. ६२ ..

yatkaroṣi yadaśnāsi yajjuhoṣi dadāsi yat |
yattapasyasi kaunteya tatkuruṣva madarpaṇam || 9-27||
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌॥ ९-२७॥
Whate’er thou doest, Prince!
Eating or sacrificing, giving gifts,
Praying or fasting, let it all be done
For Me, as Mine.
9.27
कौन्तेय! जो कुछ भी करो तप यज्ञ आहुति दान भी .
नित खानपानादिक समर्पण तुम करो मेरे सभी .. ९. २७..

matkarmakṛnmatparamo madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ |
nirvairaḥ sarvabhūteṣu yaḥ sa māmeti pāṇḍava || 11-55||
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥ ११-५५॥
Who doeth all for Me; who findeth Me
In all; adoreth always; loveth all
Which I have made, and Me, for Love’s sole end,
That man, Arjuna! unto Me doth wend.
11.55
मेरे लिये जो कर्म-तत्पर, नित्य मत्पर, भक्त है .
पाता मुझे वह जो सभी से वैर हीन विरक्त है .. ११. ५५..

manmanā bhava madbhakto madyājī māṁ namaskuru |
māmevaiṣyasi satyaṁ te pratijāne priyo’si me || 18-65||
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥ १८-६५॥
Give Me thy heart! adore Me! serve Me! cling
In faith and love and reverence to Me!
So shalt thou come to Me! I promise true,
For thou art sweet to Me!
18.65
रख मन मुझी में, कर यजन, मम भक्त बन, कर वन्दना .
मुझमें मिलेगा, सत्य प्रण तुझसे, मुझे तू प्रिय घना .. १८. ६५ ..

sarvadharmānparityajya māmekaṁ śaraṇaṁ vraja |
ahaṁ tvā sarvapāpebhyo mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ || 18-66||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ १८-६६॥
And let go those-
Rites and writ duties! Fly to Me alone!
Make Me thy single refuge! will free
Thy soul from all its sins! Be of good cheer!
18.66
तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो .
मैं मुक्त पापों से करूँगा, तू न चिन्ता व्याप्त हो .. १८. ६६ ..

ananyāścintayanto māṁ ye janāḥ paryupāsate |
teṣāṁ nityābhiyuktānāṁ yogakṣemaṁ vahāmyaham || 9-22||
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌॥ ९-२२॥
But to those blessed ones who worship Me,
Turning not otherwhere, with minds set fast,
I bring assurance of full bliss beyond.
9.22
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य-भावापन्न हो .
उनका स्वयं मैं ही चलाता योग-क्षेम प्रसन्न हो .. ९. २२


Hindi Verse translation is taken from Shri Hari Gita by Pandit Deenanath Bhargav ‘Dinesh’. English Verse translation is taken from Song Celestial by Sir Edwin Arnold from the Sanskrit Documents website.